आजु नाथ एक व्रत महा सुख लागल हे।
तोहे सिव धरु नट भेस कि डमरू बजाबह हे। ।
तोहे गौरी कहैछह नाचय हमें कोना नाचब हे।।
चारि सोच मोहि होए कोन बिधि बाँचब हे।।
अमिअ चुमिअ भूमि खसत बघम्बर जागत हे।।
होएत बघम्बर बाघ बसहा धरि खायत हे।।
सिरसँ ससरत साँप पुहुमि लोटायत हे ।।
कातिक पोसल मजूर सेहो धरि खायत हे।।
जटासँ छिलकत गंगा भूमि भरि पाटत हे।।
होएत सहस मुखी धार समेटलो नही जाएत हे।।
मुंडमाल टुटि खसत, मसानी जागत हे।।
तोहें गौरी जएबह पड़ाए नाच के देखत हे।।
भनहि विद्यापति गाओल गाबि सुनाओल हे।।
राखल गौरी केर मान चारु बचाओल हे।
अर्थ :
उपरोक्त पदों में गौरी के माध्यम से कवि कोकिल विद्यापति कहते हैं कि हे शिव ! आज एक महान व्रत का मुहूर्त है और मुझे सुख का अनुभव हो रहा है। हे प्रभु आप नटराज का भेष धारण कर डमरू बजावें। गौरी के इस आग्रह को सुन शिव जी कहते हैं ...हे गौरी आप हमें नाचने के लिए कह रही हैं पर मैं कैसे नाचूं ? कारण, नृत्य से उत्पन्न संभावित चार खतरों से मैं चिंतित हूँ जिससे बचना मुश्किल है। पहला - नृत्य के क्रम में चाँद से अमृत की बूँदें टपकेंगी जिससे मेरा यह बाघम्बर सजीव अर्थात जीवित हो जायेगा और मेरे बसहा को खा जायेगा। दूसरा - नृत्य के क्रम में ही मेरे जटा जूट में लिपटे हुए सांप नीचे की तरफ खिसक कर आ जाएँगे और और पृथ्वी पर विचरण करने लगेंगे, जिसके फलस्वरूप कार्तिक के पाले हुए मयूर उन्हें मार डालेंगे । तीसरा - जटा से निकलकर गंगा भी बाहर आ जाएँगी और सहस्त्र मुखी हो बहने लगेंगी, जिसे संभालना बहुत मुश्किल होगा । चौथा - मुंड का माला भी टूट कर बिखर जाएगा और वे सारे जीवित हो उठेंगे और आप यहाँ से भाग जाएँगी । यदि आप ही भाग जाएँगी तो फिर नृत्य का क्या प्रयोजन , कौन देखेगा ? इस गीत को गाकर विद्यापति कहते हैं औघर दानी शंकर पार्वती के मान की रक्षा करते हुए नृत्य भी करते हैं और संभावित खतरा से भी बचा लिया।
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