Wednesday, August 12, 2009

यज्ञोपवीत मंत्र

बाजसनेयी केर यज्ञोपवीत मंत्र

ॐ यज्ञोपवीतम परमं पवित्रं प्रजा पतेर्यत्सहजं पुरस्तात् । आयुष्यमग्रयं प्रतिमुंञ्च शुभ्रं। यज्ञोपवितम् बलमस्तुतेज:।।


छन्दोग केर यज्ञोपवीत मंत्र


ॐ यज्ञो पवीतमसि यज्ञस्य त्वोपवीतेनोपनह्यामि।


47 comments:

Arshia Ali said...

par mantra kahaan hai?
{ Treasurer-S, T }

Kusum Thakur said...

yah mantra hi to hai.

Kavita Vachaknavee said...

बुरा न मानें तो,
निवेदन है कि कृपया मन्त्रों को सही व शुद्ध टंकित कर दें। कई चूकें हैं। SORRY

Kusum Thakur said...

कविता जी,
जगह के हिसाब से बदलते उच्चारण में आपको त्रुटि लग सकती है मगर मैथिली और मिथिला में ये ही मन्त्र उच्चारित होते हैं और ये अक्षरशः शुद्ध-शुद्ध हैं.

Kavita Vachaknavee said...

सर्वप्रथम तो, जो भी व जितने भी मन्त्र हैं, वे वेद अथवा वैदिक वाङ्मय के हैं। इनके अतिरिक्त किसी अन्य उक्ति,कथन, सूत्र आदि को मन्त्र कहा ही नहीं जाता।

ये उपनयन के मन्त्र गृह्यसूत्र के हैं,जो अनवरत काल व परम्परा से भारत के सभी खंडों/उपखडों में उसी भाषा में सभी तत्सम्बन्धी कर्मकाँडों में प्रयोग होते हैं। मिथिला या मैथिली में (या वैदिक भाषा से इतर किसी भी भाषा में कदापि ) कोई मन्त्र न है, न रचा गया है, न प्रयोग होता है, न आज तक हुआ है।

संस्कार करवाने वाले तथाकथित पंडित न इनका स्रोत जानते हैं, न अर्थ और यहाँ तक कि न सही उच्चारण, न वे भी पुस्तक उठाकर कष्ट करने का उपक्रम करते हैं। सुने सुनाए रटते चले आए इन मन्त्रों को बेचारे यजमान या श्रोता भी कहाँ जानते हैं, जो कोई सही उच्चारण
के लिए टोक सकें।

इसलिए भगवान के लिए इनकी वर्तनी सही कीजिए । ये अशुद्ध वर्तनी में हैं। आपके लिए सम्भव न हो तो मैं बताऊँ ?

और हाँ, भविष्य में यह तर्क कभी किसी को मत दीजिएगा कि मन्त्र मैथिली में हैं, वरना पाठक /श्रोता को मूर्ख समझने की कोशिश होगी। कहीं कोई वास्तव में मेरे जैसा मूर्ख टपक पड़ा तो ... बेचारा मारा जाएगा।

P.N. Subramanian said...

हम कविता जी का समर्थन करते हैं.

Anonymous said...

आप तो तिलमिला गयीं कविता जी,
माना आप ज्ञानी हैं, शायद शिक्षाविद् भी हैं, पत्रकारों की मित्रता आपको सुहाता है मगर इस तरह तिलमिलाना तो कदाचित ज्ञान का आभाव दर्शाता है. सबसे पहले मेरे प्रतिक्रिया को पढें, कहीं नहीं लिखा कि मन्त्र मैथिली में है, माँ जानकी की धरा के पुत्रों को कदाचित नहीं समझाना पड़ेगा कि देव भाषा संस्कृत ही है और मंत्रों का महाजाल संस्कृत में ही है,
उपनयन के मन्त्र सम्बंधित अपनी टिपण्णी के लिए आपको भारत के सभी क्षेत्र पूर्व पश्चिम उत्तर और दक्षिण में जा कर पुष्टी करें, आपको उच्चारण के भेद पता चलेंगे. आपसे सहमति कि मैथिली में शायद मंत्रों का जाल नहीं रचा गया, मगर मैंने ये कहा कब कि ये रचा गया है.
संस्कार करवाने वाले पंडित पर आपने टिपण्णी तो कर दी मगर उन का क्या जिनको इन संस्कारों के लिए पंडितों कि आवश्यकता ना आती हो, अगर आपको इसकी पुष्टी करनी हो तो बेहिचक आप मुझ से प्रश्नों उत्तर ले सकती हैं.
और हाँ इसकी अशुद्धियाँ संबंधी वर्तनी के लिए हमें किसी के पास जाने की जरुरत नहीं है, सो आप बताये या ना बताये मगर जानकी के देश में आकर अपनी वर्तनी जरूर सुधार लें. रही बात मुर्ख समझने की तो एक बार पुनः:श्च मेरी प्रतिक्रया पढें जिसमें शायद कहा गया हो कि ये मैथिली में है बाकी आप खुदज्ञानी हैं.
रही बात मुर्खता और ज्ञानी होने कि तो आप जानती ही होंगी कि शंकराचार्य मधुबनी के सरिसवपाही निवासी मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ करने मिथिला आये, मंडन मिश्र पूजा पर बैठे थे, उनकी अर्धांगनीभारती ने चुनौती किया कि पहले मुझ से शास्त्रार्थ कर लें फिर मेरे पति से करियेगा,
भारती से शास्त्रार्थ में पराजित होकर शंकराचार्य वापस अपने पीठ लौट गए, इसका मलाल आज तक दक्षिण के पंडितों को है कि उनके पीठाधीश एक गृहणी से शास्त्रार्थ में पराजित हो कर लौटे.

सो मिथिला कि बिना पढ़ी लिखी महिला से भी चुनौती मत करियेगा, बाकी आप खुद ज्ञानी हैं.

Anonymous said...

सुब्रमण्यम जी,
समर्थन और विरोध के बजाय अपने विचार रखें,
गधों कि बैठक में ही सारे गधे रेंकते हैं, पंडितों कि सभा में आज तक एक मत होते ना देखा ना सुना.
बाकी आप ज्ञानी तो हैं ही.

Kusum Thakur said...

कविता जी
मैं तो अपने आज की पीढी के बच्चों को यह सब मंत्र और कुछ जानकारी देना चाह रही हूँ.
हाँ आपके इतनी पढ़ी लिखी तो नहीं हूँ पर संस्कृत मैं भी जनती हूँ.
हाँ इतना जरूर है मैं एक बहुत बड़े स्वर्ण पदक प्राप्त पंडित के घर से हूँ. जिन्हें काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय ने प्रदान किया था. साथ ही एक महामहोपाध्याय की सम्बन्धी भी हूँ.
मुझे आप अनपढ़ जरूर समझी इसलिए आप ने ऐसे शब्दों में टिप्पणी दी हैं. पर मेरे मंत्र बिलकुल शुद्ध है.
हम लोगों को पंडित पर भरोसा नहीं करना पड़ता है हम खुद ही सारे संस्कार के विषय में जानते है.

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

अरे भाइयों और बहनों,

कथित शुद्ध पाठ पोस्ट कर के तुलना कर लो। संस्कृत के पंडित तो यहाँ हैं ही। लगे हाथ हमें भी सूक्ष्म अंतरों का पता चल जाएगा।


लेकिन यह वाद विवाद यहाँ क्यों? बहुत सी जगहों पर वेदों और मनीषियों की शिक्षाओं को पढ़े लिखे आपस में लड़ रहे हैं। आप लोग इस जगह को भी क्यों वैसा बना रहे हैं ?

Vidya Mishra said...

I completely agree with .....Kusum ji , Rajneesh , Jyoti and Dileep and many more respectable and authority of Maithili and Mithila literature .She is trying to put and assemble those rituals ...and mantras for Mithila and Maithils with correct pronunciations and spellings ...what you call in English term ....
Sorry to define....but I was three times BIHAR STATE WINNER of Strotas Chanting ...when I was in my high School there ...and their judgemental skills are still there with me...
1) Spell properly ( Uchcharan )
2) Write properly
3) If you are chanting in music base ....you shouldn't transform ....those words based on yr convenience ....... Read More
And these all I find in this Yagyopavit mantras ....which many people will pronounce ...Yajyopavit ....
Moreover DR KAVITA ,....whats yr education and qualification ....I am not aware of ....and don't intend to but yet it proves as ...
ADHJAL GAGRI ..CHALKAT JAYE ...BHARI GAGRIYA ...CHUPPE JAYE !!!!
My intention was not to hurt anyone..

drishtipat said...

कविता जी नमस्कार
हम मिथालावासी के बारे में आपको शायद रत्ती भर भी ज्ञान नहीं है, मेरा सुझाव है कि आगे ज्ञान की जरूरत हो तो हमारे मित्र भाई रजनीश जी से भी प्राप्त कर सकती हैं, हम लोग हमेशा दुनिया को कुछ न कुछ देते रहें हैं, रही बात बौद्धिकता की तो आपमें शायद भाषा संस्कार की घोर कमी है, कि आपने अपनी ओछी मसिकता का परिचय देते हुए, उस शब्द का इस्तमाल किया हैं, जो हम दुश्मन के बच्चो के साथ भी ऐसा नहीं करते, आप की अज्ञानता आपकी लेखनी से ही पता चलता है, जिसको आप अपनी विद्वता दिखाते हुए, अमर्यादित शब्द का प्रयोग की हैं, पहले उनके बारे में जानने का आपको हम सलाह देते हैं, और एक सलाह ब्लॉगर साथी होने के नाते देते हैं,कि आपकी भाषा से किसी का भी स्वाभिमान आह़त होगा, अतः आप पहले भाषा संस्कार से संस्कारित हो लें, और अपने विद्वता का अंहकार को थोडा कम करे, आपके सामूहिक संबंधो के लिए यह और बेहतर होगा, समाज का भी कल्याण होगा,
अरुण कुमार झा

Vidya Mishra said...

Arun ji ,
Well Said ...
for anyone and everone ...if you have mouth to speak ...you have ears to hear as well ...and eyes to look at it too !!!! God bless all of us !!!

Vidya Mishra

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा said...

यदि दोनों पक्ष मुझे क्षमा करें तो अनामंत्रित पाठक के रूप में यह कहना चाहता हूँ कि इस आग्रह को अनुचित नहीं माना जा सकता कि वैदिक मंत्रों की वर्तनी शुद्ध रहनी चाहिए अन्यथा उनका उच्चारण भी बदल जाएगा और अर्थ भी. विशेष रूप से जबकि हम इन मंत्रों को भावी पीढ़ियों को सुरक्षित सौंपना चाहते हैं तब तो यह सावधानी और भी अपेक्षित हो जाती है. तनिक सी टिप्पणी से उबल उठे मित्रों का ध्यान इस ओर भी जाना चाहिए था कि इस प्रविष्टि में उद्धृत मंत्र में यज्ञोपवीत की वर्तनी दो प्रकार से दी गई है : शीर्षक में 'यज्ञोपवीत' तथा प्रथम मंत्र में 'यज्ञोपवित' .किसी भी सामान्य पाठक को इस द्वैत से मंत्र की शुद्धता पर संदेह हो सकता है, अतः वर्तनी ठीक करने का सुझाव कुछ बेजा नहीं कहा जा सकता.


जिनके भी पास हो,वे शुद्ध और प्रामाणिक पाठ उपलब्ध करा दें तो सभी का भला होगा.


ब्लॉग-मित्र किस प्रकार असहिष्णु और आक्रामक हो सकते हैं, यह अन्यत्र कई बार देखा जा चुका है.आशा है कि यह प्रकरण उन उदाहरणों में नहीं जुड़ेगा.

क्षमायाचना सहित
ऋ. आपका

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा said...

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं
प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्रयं प्रति मुञ्च शुभ्रं
यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेज:।।

-ब्रह्मोपनिषद्

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

मंत्र में तो हमें भी कहीं वर्तनी अशुद्धी नहीं दिखाई दे रही।
कुसुम जी, आपने इतने सुन्दर विषय आधारित ये चिट्ठा प्रारम्भ किया है,रजनीश जी,अरूण जी सहित आप सब से एक निवेदन है कि कृ्प्या इसके विषय को देखते हुए इसकी मर्यादा का ख्याल अवश्य रखा जाना चाहिए। शास्त्रार्थ होना चाहिए,किन्तु भाषा का संयम भी अति आवश्यक है अन्यथा शास्त्रार्थ की अपेक्षा दंगल बनते देर नहीं लगेगी।
आभार!!

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥ -पार० गृ०सू० २.२.११

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

मैं डॊ. ऋषभ देव शर्माजी की टिप्पणी से सहमत हूं। वैसे, गधों की बैठक में आने के लिए क्षमाप्रार्थी भी हूँ:)


क्यों! तिलमिला गए रजनीश जी:) :) :)

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा said...

प्रसन्नता की बात है कि अब आपने मंत्र की प्रथम पंक्ति में वर्तनी सुधार दी है .परन्तु अब भी दूसरी पंक्ति में 'यज्ञोपवितम्' ही रह गया है , यथा- अब ब्लॉग पर सुधारा हुआ रूप यह दिख रहा है -

''ॐ यज्ञोपवीतम परमं पवित्रं प्रजा पतेर्यतसहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रयं प्रतिमुंञ्च शुभ्रं। यज्ञोपवितम् बलमस्तुतेज:।।''

अतः दूसरी पंक्ति में भी संशोधन वांछित है.

वैसे '' यज्ञोपवीतम ''में 'म' को हलंत होना चाहिए . ''प्रजा पतेर्यतसहजं'' में 'त' हलंत होगा.

इस प्रकार संशोधित रूप कुछ ऐसा होगा -
''यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं
प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्रयं प्रति मुञ्च शुभ्रं
यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेज:।।''

आशा है कि इन बातों को अन्यथा नहीं लेंगे और प्रेम बनाए रखेंगे.

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

इस प्रकार विदित हुआ कि प्रारम्भिक पोस्ट में वर्तनी कुछ अशुद्ध थी। यदि हाँ, तो मिथिला पक्ष वालों से अवध पक्ष की प्रार्थना है कि मन को साफ करलें और प्रसन्न रहें। आखिर कुछ झेंप तो आयी ही होगी।

दर असल संस्कृत के श्लोकों का उच्चारण क्षेत्रीय बोली के प्रभाव से बदलता रहता है, लेकिन जब इसे लिखा जाय तो निश्चित ही संस्कृत व्याकरण के अनुसार ही वर्तनी होनी चाहिए।

कविता जी, आपको इन्हें ई-मेल से राय देनी चाहिए थी। अनावश्यक अप्रिय वार्तालाप हो गया।

सबसे भले हैं मूढ़ जिन्हें न व्यापे जगत गति। :)

रतिराम चौरसिया said...

भाई, केवल विद्वान ही गधों को नहीं पहचानते. गधे भी विद्वानों को पहचानते हैं.

Anonymous said...
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Anonymous said...

तकनिकी समस्या कि अंतरजाल से दूर ना रहकर भी फेसबुक और ब्लॉग का सानिघ्य नहीं था, मगर प्रवचनों का सिलसिला और प्रलापें यहाँ जारी रही.
भाई ऋषभ आपने सरलता से बात कही, मगर इस सरलता में भी अपनी बात कह कर लेखिका को गलत साबित करने का प्रयास किया, प्रयास सफल रहा क्यूंकि मेरी अनुपस्थिति में त्रिपाठी जी बांसुरी बजा रहे थे,

बाकी चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी आपका स्वागतम, सहमति और रेंकने के लिए आभार भी, सम्मलेन हो या बैठक, गर्धव हों तो अपने स्वर तो निकालेंगे ही. बाकी तिलमिलाता तो अब तक कई पोस्ट अपने ब्लॉग पर डाल चूका होता :-) :-) :-)

उम्र के हिसाब से आपसे सीखा गर्धव स्वर शायद मेरे काम आ जाये :-) :-)
वैसे सहमति और असहमति से परे अपनी राय हो तो जरूर रखें, उम्र के इस मुकाम पर कुछ तो सीखा होगा चाटुकारी के अलावा.

मित्र त्रिपाठी जी, आपने वार्ता में मिथिला और अवध का जिक्र किया, मगर क्या आप तथ्य से वाकिफ हैं, हिमायत होना और सहमति जताना से परे
अध्ययन कीजिये, और फिर मुद्दों में कुछ वजन डालिए, राम राम करने से आप ज्ञानी नहीं हो सकते, और हाँ जी हाँ जी पता ही होगा किसे कहते हैं.

कुसुम जी जिस तरह से मुद्दे पर लोगों अपनी राय रखी है सोचनीय है कि विद्वजन के लिए विद्वता मात्र दरबाराना हो गया है.

आप का प्रयास सुन्दर है और इसे जारी रखें.

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...
This comment has been removed by the author.
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

रजनीश जी,
आपकी भाव भंगिमा तो नहीं देख पा रहा हूँ, लेकिन आपके द्वारा जिस भाषा का प्रयोग किया गया है और गुस्से में हिन्दी की जो ऐसी-तैसी की गयी है, उससे मुझे उस ‘चिड़िया और बन्दर’ वाली कहानी याद आ रही है।

बारिश और ठण्ड में ठिठुरते बन्दर को अपने सुरक्षित घोसले में बैठी चिड़िया ने परिश्रम करने का उपदेश क्या दे दिया, उसने खीझकर उसका घोसला ही उजाड़ फेंका। आपकी मानसिकता भी कुछ वैसी ही लग रही है।

संस्कृत की कौन कहे, आपने तो साधारण हिन्दी के शब्दों की वर्तनी शुद्ध रखने की जरूरत भी नहीं समझी और अनर्गल प्रलाप पर उतर आये। हिन्दी व्याकरण को भी आपने अपने दुराग्रह के आगे शर्मसार कर दिया।

कृपया अपनी टिप्पणी को शान्त मन से दुबारा पढ़िए। दर्जनों गलतियाँ भरी पड़ी है। हो सकता है इनमें कुछेक टंकड़ औजार के अकुशल प्रयोग से भी हुई हों, लेकिन यदि आप मिथिलावासी होने मात्र से अपने को सभी गलतियों से पूर्णतः अछूता और मुक्त होने का दावा करते हैं, तो आपको थोड़ा ध्यान शब्दों की वर्तनी और वाक्य विन्यास में व्याकरण की शुद्धता व शब्दों के लिंग और वचन के औचित्य पर भी देना चाहिए था। लेकिन आप तो बस दूसरों को धराशायी करने पर तुले हुए हैं।

अपना ब्लॉग है और स्वतंत्र होकर लिखने की पूरी छूट है, तो इसका दुरुपयोग दूसरों को अपशब्द कहने के लिए करना कहाँ तक उचित है? यह किसी मिथिलावासी तो क्या किसी भी सभ्य इन्सान को शोभा नहीं देता।

मुझे आपकी बातों का जवाब देने का मन तो नहीं था, क्योंकि आप हमारे विरुद्ध अपनी शब्द सम्पदा पुनः उड़ेलने से बाज नहीं आएंगे, लेकिन आपने अपने को सभी मिथिलावासियों का प्रतिनिधि बताकर उस श्रेष्ठ बिरादरी की छवि ही खराब की है, इसलिए यह सब कहने का दुस्साहस कर बैठा।

वैसे मूर्ख और बुद्धिमान, ज्ञानी और अज्ञानी कभी भी अलग-अलग क्षेत्रों में नहीं रहते। सभी आपस में घुले-मिले हैं। कहीं भी गधे मिल सकते हैं और घोड़े भी।

Anonymous said...

मित्रप्रव त्रिपाठी जी आप शिक्षक हैं,
और ज्यादा नहीं तो वहीँ से जहाँ का परिणाम शिक्षकों की योग्यता पर प्रश्नचिन्ह लगता है,
ज्ञान बाँटिये मगर ब्लॉग से पहले अपने बच्चों को तो शिक्षित कर लीजिये.
वैसे गधे शिक्षक हों तो छात्र घोडे नहीं बन सकते.
बाकी आप खुद ज्ञानी हैं.

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

August 13, 2009 2:12 PM को की गई टिप्पणी में मैने जो आशंका व्यक्त की थी, दुर्भाग्य से वह सत्य हो गई। 'यज्ञोपवीत' का संस्कार यही सिखाता है क्या ?

इस साइट पर जो भी गैर मैथिल आते हैं, एक सहज अनुरागमयी भावभूमि से आते हैं, वह भावभूमि जिसे नागार्जुन और रेणु ने संस्कारित किया। एक कौतुहल रहता है कि मैथिल संस्कृति कैसी है ! लेकिन प्रति-टिप्पणियों का स्तर देख कर क्षोभ होता है। 'गधे' की श्रेणी में रखे जाने का खतरा उठा कर भी मैं निम्न बातें कहूँगा:

(1) सिद्धार्थ जी से सहमत हूँ कि कविता जी को राय ई-मेल से देनी चाहिए थी। सम्वाद की आंचलिक और क्षेत्रीय विविधता को ध्यान में न रखने से उपजी समझ की गड़बड़ी ने बात का बतंगड़ बना दिया। अपनी लोक/क्षेत्रीय संस्कृति से प्रेम होना अच्छा है लेकिन इतनी उग्रता और इतना विष, वह भी जरा सी नासमझी के चलते ! यह ठीक नहीं है।

(2) मैथिल संस्कृति में इतर लोग भी रुचि ले रहे हैं, इस पर तो आनन्द होना चाहिए। आपत्ति लिखे गए पवित्र मंत्रों की वर्तनी की अशुद्धियों पर थी, न कि इस ब्लॉग की लेखिका/लेखक(इसलिए लिख रहा हूँ कि रजनीश जी ने टिप्पणियों में ऐसे संकेत दिए हैं जैसे इसके लेखन में वह भी सम्मिलित रहे हैं। कुसुम जी के मौन को सहमति मान रहा हूँ।) और बाकी मैथिल जन के ज्ञान और सदाशयता पर। मैथिल लोग प्रखर मेधा के लिए जाने जाते हैं, इसके लिए किसी विश्वविद्यालय या किसी प्रतियोगिता के परिणाम के प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। शंकर के पराजय जैसे ही प्रभावकारी अन्य ऐतिहासिक तथ्यों के उदाहरण भारत के हर क्षेत्र दे सकते हैं। इस तरह के एकांगी कथन आप की 'निर्मूल' आशंका और व्यर्थ अहंकार को ही अभिव्यक्त करते हैं।
(3)अवध और मिथिला का विनोद हजारों हजार साल पुराने रिश्ते से आता है। उस पर इतनी उग्र और भद्दी प्रतिक्रिया समझ के बाहर है। अरे हमारे वैवाहिक लोकगीतों में राजा जनक को जो आदर प्राप्त है, उसी को याद कर इस विनोद को समझ लेते ! वर्तनी और अन्य अशुद्धियाँ जता रही हैं कि टिप्पणियाँ उबाल में ही लिखी गई हैं, समझ के साथ नहीं।
(4) अंतिम टिप्पणी तो बस ...। आक्रोश ,जिसका कोई तुक ही नहीं है, में आकर ऐसे अनर्गल वचन। भैया रजनीश जी, घोड़े, गधे , शिक्षा और क्षेत्रीय संकीर्णता के कटाक्ष करने के पहले अपने ब्लॉगर बन्धु के बारे में अच्छी तरह जान तो लेते !
बच्चों को घसीटना तो हद ही है।

मानता हूँ कि ब्लॉग किसी व्यक्ति या समूह का अभिव्यक्ति का निजी सा साधन है लेकिन जब आप उसे प्रकाशित करते हैं तो सब के लिए करते हैं। यदि आप ने दूसरों को पढ़ने और टिप्पणी करने की स्वतंत्रता दी है तो थोड़ा उनका भी मान रखें। इतना ऑब्जेक्सनेबल तो सिद्धार्थ जी ने नहीं लिखा कि आप इस तरह की टिप्पणियाँ लिख बैठे।

थोड़ी परिपक्वता दिखाइए बन्धु, कुसुम जी जो लिख रही हैं, हम उसके प्रशंसक हैं और आते रहेंगे, टिप्पणी करते रहेंगे जब तक कि आप हमें रोक नहीं देंगे। मिथिला से हमारा रिश्ता ही ऐसा है कि हम आना बन्द नहीं कर सकते। :)

इतना इसलिए लिख गया कि मुझे अपनी आशंका घटित होने की तनिक भी 'आशंका' नहीं थी। आज आप सिद्धार्थ जी पर ऐसे बरस रहे हैं तो कल जाने मेरे किस विनोद पर आप मुझे भी ...

drishtipat said...

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद
जी नमस्कार. मैं सभी बातो की एक बात कहूँगा कि इस बात को अंहकार से परे रख कर एक मित्र के नाते और शुद्ध मन से कुछ बात कहने की स्वतंत्रता है, लेकिन गधा, कुत्ता, बिल्ली आदि शब्दों के प्रोयग एवं ऐसी संज्ञा का परिचय देना उचित ही नहीं अक्षम्य भी है, और आपको माफ़ी मिल जायगी, घबराने की जरूरत नहीं है, माफ़ी मांग लीजिये, आपने मनुष्य की सभा को गधों की जमात कही है, कही न कही आपमें वो गुण मौजूद है, अपने अन्दर भी एक बार देखिये, या आपके घर ऐना तो होगा ही, आपको पता चल जायेगा कि आप कितने सही हैं,
मेरी शुभ कामना है आपके साथ, इश्वर आपको मनुष्य और आदमी में फर्क समझने की बुद्धि दें,
अरुण कुमार झा

google biz kit said...

hey bhut accha likha ha

Arun sathi said...

bariyaa

Anonymous said...

Ladloo bevkufooo.... Hindu dharm ko mjaak bnaa k rkh diya h aap jaise gyanio ne...

Unknown said...

यज्ञोपवीत संस्कार
यज्ञोपवीत संस्कार को उपनयन संस्कार के नाम से भी जाना जाता है। यह संस्कार सोलहों संस्कारों में सबसे विशेष महत्व का है। माता पिता बालक के इस संस्कार के प्रति काफी जागरूक रहते हैं. इस संस्कार के बाद बालक में विद्या बुद्धि के क्षेत्र मे विशेष परिवर्तन दीखता है।

Unknown said...

जनेऊ को बनाते समय जिस मंत्र से जनेऊ को मंत्र बध्द करते है उसका पुरा शलोक एंव क्रियाविधि बताये ।



कृपया जल्दी से भेजे।धन्यवाद !

Unknown said...

Nice

Unknown said...

Vats gotra hai ,konsa Mantra hoga.kripya batawen

Unknown said...

Vats gotra hai ,konsa Mantra hoga.kripya batawen

Unknown said...

Proud to be maithil

Unknown said...

Mandan ji sarharsa ke the Rajneesh ji.

Govind Kumar Jha said...

Aaj jindhi me 1st time google ka shi use hua....janeu ko mantra sidh karne ke time pe mai mantra bhul gaya and got it from this site,thanks for storing yagyopavit mantra.

Unknown said...

हे प्रभु,
कैसा अहंकार इन तथाकथित ज्ञानियों का। जरा सी बात पर। भगवान शंकराचार्य को भी नहीं छोड़ा। वह इनके लिए मात्र एक दक्षिण के पंडित ही रह गए। यही संस्कार और शिक्षा हम दे रहे है अगली पीढ़ी को। क्या हैरानी यदि नयी पीढ़ी धर्म और संस्कारों को नहीं मानती।

Mayank choudhary said...

आपस में एक दुसरे के विरोध से आप सब लोग स्वयं को मूर्ख की संग्या की ओर प्रेरित कर रहे है. पहले स्वयं में आप लोग सीखने की कला का विकास kre धन्यवाद

Kailash Jha. said...

This is the reason that Hindu religion is weakening day by day in practice.In fact no body wants to understand that there is no perfection in anything in this world.For a simple mistake of writer of the yagyopaveet Mantra such a big dirty debate started. This is shameful.It just happened because of over self pride of some of the debating people. Main problem is that we are not a Hindu at all.some are northerner, some are southerner, some are from West India and some are from east India.You people are debating about the secred Yagyopaveet Mantra.I think all these debating men are having a good deal of our Hindu cultural knowledge.As far as the Yagyopaveet is concerned how many Brahmin of North India knows the karma one should perform after one's Yagyopaveet ceremony. Very few. The Manusmriti says that if a person don't do sandhya the he becomes a shifts.I have found from enquiring some of the Brahmins of North India that they don't know even what is Sandhya.If it is so then what is use of educating our next generation Yagyopaveet Mantra ? As far as my Mathilde are concerned most of them have there bath in afternoon which is totally against our Hindu culture taught by our scriptures. I am pained to read the blog that you people don't even spare Sri Adi Shankaracharya and Ram also. Can anyone from Mithila in general and North India in particular tell that why all the Acharyas were born only in South India to save the Hindu Dharma.Why one can say that Sri Shankaracharya was South Indian vidwan ? If you talk about Sri Mandan Mishra why only comparing the referred debate about which I came to know while reading a religious book. Can any Mathilde say how many of us even know about Sri Mandan Mishra or even informing our children about him ? By having this type of debate on this blog you are not serving our great Hindu religion but degrading it which I request please refrain from doing this.
Dhanyavad,
Namaskar,
Kailash Jha

Kailash Jha. said...

Mathilde should be read as Mathil.

Kailash Jha. said...

The referred debate between Sri Shankaracharya and Sri Mandan Mishra was put as half Truth.The fact about that debate was that vidushi Smt Bharti challenged Sri Shankaracharya only after Shri Mandan Mishra lost in the debate and put forward a question related to family life which was nothing but natural for Sri Shankaracharya to be unable to answer as he was a bal brhamachari and a Sanyasi.So he beg for one month time and went away. After that it is said that he entered into the dead body of a King to experience the detail of the question put forward by vidushi Smt Bharti. After a month Sri Shankaracharya came and defeated vidushi Smt Bharti.Consiquently Maha vidwan sri Mandan Mishra became Sri Shankaracharya's Shishya.By presenting the half truth you have not only demeaned Sri Shankaracharya but revered Sri Mandan Mishra also for which Sri Mandan Mishra might be crying in the heaven.
Dhanyavad,
Namaskar
Kailash Jha.
Email- k.m.jha1945@gmail.com

Kailash Jha. said...

In my first comment I wrote if Brahmin doesn't do sandhya for 3 days he becomes a shudra which turned into shifts. So it should be read as Shudra.

Anonymous said...

can someone plz explain as what is chhandogya and Vachasneya??How are the different from one another???

शिरीष झा said...

बंधुगण,
मेरी अज्ञानता दूर कीजिए और कृपा कर यज्ञोपवीत मंत्र का अर्थ बताने की क्रिपा करें।

 
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