कवि कोकिल विद्यापति
(कवि कोकिल विद्यापति मिथिला के घर घर में अब भी अपनी रचनाओं के माध्यम से बसे हैं . ऐसा कोई भी शुभ कार्य नहीं जहाँ विद्यापति की रचनाओं को ना गाया जाता हो . शुभ कार्यों में भगवती या देवी स्तुति तो आवश्यक है . मिथिला वासी शिव शक्ति की पूजा करते हैं और हर शुभ कार्य का प्रारंभ देवी की स्तुति से होता है . प्रस्तुत है विद्यापति रचित देवी स्तुति . )
"कनक भूधर "
कनक-भूधर-शिखर-बासिनी
चंद्रिका-चय-चारु-हासिनि
दशन-कोटि-विकास-बंकिम-
तुलित-चंद्रकले ।।
क्रुद्ध-सुररिपु-बलनिपातिनि
महिष- शुम्भ-निशुम्भघातिनि
भीत-भक्त-भयापनोदन -
पाटव -प्रबले।।
जे देवि दुर्गे दुरिततारिणि
दुर्गामारी - विमर्द -कारिणि
भक्ति - नम्र - सुरासुराधिप -
मंगलप्रवरे ।।
गगन - मंडल - गर्भगाहिनि
समर - भूमिषु - सिंहवाहिनि
परशु - पाश - कृपाण - सायक -
संख -चक्र-धरे ।।
अष्ट - भैरवी - सँग - शालिनी
स्वकर - कृत - कपाल- मालिनि
दनुज - शोणित -पिशित - वर्द्धित-
पारणा-रभसे।।
संसारबन्ध - निदानमोचिनी
चन्द्र - भानु - कृशानु - लोचनि
योगिनी - गण - गीत - शोभित -
नित्यभूमि - रसे ।।
जगति पालन - जन्म - मारण -
रूप - कार्य - सहस्त्र - कारण -
हरी - विरंचि - महेश - शेखर -
चुम्ब्यमान - पड़े। ।
सकल - पापकला - परिच्युति-
सुकवि - विद्यापति - कृतस्तुति
तोषिते - शिवसिंह - भूपति -
कामना - फलदे।।
चंद्रिका-चय-चारु-हासिनि
दशन-कोटि-विकास-बंकिम-
तुलित-चंद्रकले ।।
क्रुद्ध-सुररिपु-बलनिपातिनि
महिष- शुम्भ-निशुम्भघातिनि
भीत-भक्त-भयापनोदन -
पाटव -प्रबले।।
जे देवि दुर्गे दुरिततारिणि
दुर्गामारी - विमर्द -कारिणि
भक्ति - नम्र - सुरासुराधिप -
मंगलप्रवरे ।।
गगन - मंडल - गर्भगाहिनि
समर - भूमिषु - सिंहवाहिनि
परशु - पाश - कृपाण - सायक -
संख -चक्र-धरे ।।
अष्ट - भैरवी - सँग - शालिनी
स्वकर - कृत - कपाल- मालिनि
दनुज - शोणित -पिशित - वर्द्धित-
पारणा-रभसे।।
संसारबन्ध - निदानमोचिनी
चन्द्र - भानु - कृशानु - लोचनि
योगिनी - गण - गीत - शोभित -
नित्यभूमि - रसे ।।
जगति पालन - जन्म - मारण -
रूप - कार्य - सहस्त्र - कारण -
हरी - विरंचि - महेश - शेखर -
चुम्ब्यमान - पड़े। ।
सकल - पापकला - परिच्युति-
सुकवि - विद्यापति - कृतस्तुति
तोषिते - शिवसिंह - भूपति -
कामना - फलदे।।
उपरोक्त पंक्तियों में कवि कोकिल विद्यापति देवी की वन्दना करते हुए कहते हैं :
हे सुमेरु पर्वत पर निवास करने वाली , शुभ्र ज्योत्सना की तरह मुस्कान बिखेरनेवाली देवी आप अपने दन्त पंक्तियों के बंकिम विकास से चन्द्रकला को उपमित करती हैं .क्रुद्धावस्था में शत्रुओं के बल का विनाश करनेवाली, महिषासुर, शुम्भ, निशुम्भ का संहार करनेवाली हे देवी .....आप भयभीत भक्त के भय को दूर करने में प्रवीन हैं . पाप मुक्त करनेवाली, कठिन शत्रुओं का विनाश करनेवाली तथा भक्ति भाव से विनम्र हुए देवासुरों का कल्याण करनेवाली हे देवी दुर्गे ...आपकी जय हो ! अथाह आकाश मंडल में विचरण करनेवाली सिंह पर सवार हे देवी ! आप समर भूमि में अपने हाथों में परशु, पाश , कृपाण, वाण, शंख आ चक्र धारण किये रहती हैं . आठों भैरवियों को साथ रखनेवाली हे देवी .....आप आनंद प्रदायिनी हैं. चन्द्र, सूर्य और अग्नि के समान नेत्र वाली, संसार के बंधनों के कारणों से छुटकारा दिलानेवाली हे देवी ! संसार की उत्पत्ति पालन और संहार करनेवाली हे देवी आप हज़ारों रूप में कार्यों को सिद्ध करने हेतु हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु और महेश का मस्तक लगातार आपके चरणों को स्पर्श करता है . सभी पापों से मुक्ति दिलानेवाली हे देवी कवि विद्यापति आपकी स्तुति करते हैं और राजा शिव सिंह की कामना के अनुरूप फल प्रदान करें .
2 comments:
कवि कोकिल विद्यापति की सुंदर पदावलि पढवाने के लिए आपका आभार
अर्थ के साथ इस प्रस्तुति ने भगवती के गीत को समझने में काफ़ी सहयाता पहुंचाई है।
आपका प्रयास सराहनीय है।
आभार!
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