Friday, October 8, 2010

देवी दुर्गा केर पुष्पाञ्जलि मन्त्र


(आजु सs दुर्गा पूजा अछि तs सोचलहुं  एहि बेर पुष्पांजलिक मन्त्र दs दियैक)
"पुष्पांजलि मन्त्र"

ॐ दुर्गे दुर्गे महामाये सर्वशक्तिस्वरुपिणि 
त्वं काली कमला ब्राह्मी त्वं जया विजया शिवा
त्वं लक्ष्मिर्विष्णुलोकेषु कैलाशे पार्वती तथा
सरस्वती  ब्रह्मलोके चेन्द्राणी शक्रपूजिता
वाराही नारसिंही च कौमारी वैष्णवी तथा
त्वमापःसर्वलोकेषु ज्योतिर्ज्योतिःस्वरूपिणी
योगमाया त्वमेवाsसि वायुरूपा नभःस्थिता
सर्वगन्धवहा पृथ्वी नानारूपा सनातनी
विश्वरूपे च विश्वेशे विश्वशक्तिसमन्विते 
प्रसीद परमानन्दे दुर्गे देवी नमोस्तुते 
नानापुष्पसमाकीर्ण नानासौरभसंयुतम्
 पुष्पाञ्जलिञ्च विश्वेसि गृहाण भक्तवत्सले
एष पुष्पांजलिः   

Saturday, October 2, 2010

रूसी चलली भवानी (महेशवाणी आ नचारी)




"कवि कोलिक विद्यापति"

रुसि चलली भवानी तेजि महेस 
कर धय कार्तिक कोर गनेस 

तोहे गउरी  जनु नैहर जाह 
त्रिशुल बघम्बर बेचि बरु खाह

त्रिशुल बघम्बर रहओ बरपाय 
हमे दुःख काटब नैहर जाए

देखि अयलहुं गउरी, नैहर तोर 
सब कां पहिरन बाकल डोर 

जनु उकटी सिव , नैहर मोर 
नाँगट सओं भल बाकल-डोर 

भनइ विद्यापति सुनिअ  महेस 
नीलकंठ भए हरिअ कलेश  

उपरोक्त पंक्तियों में कवि कोकिल विद्यापति गौरी के रूठ कर जाने का वर्णन करते हुए कहते हैं :
गौरी रूठ कर शिव जी को छोड़ विदा होती हैं. कार्तिक का वे हाथ पकड़ लेती हैं और गणेश को गोद में ले लेती हैं . शिव जी आग्रह करते हुए कहते हैं - हे गौरी , आप नैहर (मायके ) न जाएँ . चाहे उन्हें त्रिशूल और बाघम्बर बेचकर ही क्यों न खाना पड़े . यह सुन गौरी कहती हैं - यह त्रिशूल और बाघम्बर आपके पास ही रहे . मैं तो नैहर जाऊँगी ही , चाहे दुःख ही क्यों न काटना पड़े . तब शिव जी कहते हैं - हे गौरी मैं आपका नैहर भी देख आया हूँ . वहाँ लोग क्या पहनते हैं ....सभी बल्कल यानि पेड़ का छाल आदि पहनते हैं . यह सुन गौरी गुस्सा जाती हैं और कहती हैं - हे शिव मेरे नैहर को मत उकटिए( शिकायत ) . ऐसे नंगा रहने से तो अच्छा है लोग पेड़ का छाल तो पहनते हैं . विद्यापति कहते हैं - हे शिव , सुनिए ! नीलकंठ बन जाएँ और गौरी के सारे क्लेश का हरण कर लें . 

Friday, October 1, 2010

आजु नाथ एक व्रत (महेशवाणी आ नचारी)



कवि कोकिल विद्यापति 

"आजु नाथ एक व्रत "

आजु नाथ एक व्रत महा सुख लागल हे।
तोहे सिव धरु नट भेस कि डमरू बजाबह हे। ।
तोहे गौरी कहैछह नाचय हमें कोना नाचब हे।।
चारि सोच मोहि होए कोन बिधि बाँचब हे।।
अमिअ चुमिअ भूमि खसत बघम्बर जागत हे।।
होएत बघम्बर बाघ बसहा धरि खायत हे।।
सिरसँ ससरत साँप पुहुमि लोटायत हे ।।
कातिक पोसल मजूर सेहो धरि खायत हे।।
जटासँ छिलकत गंगा भूमि भरि पाटत हे।।
होएत सहस मुखी धार समेटलो नही जाएत हे।।
मुंडमाल टुटि खसत, मसानी जागत हे।।
तोहें गौरी जएबह पड़ाए नाच के देखत हे।।
भनहि विद्यापति गाओल गाबि सुनाओल हे।।
राखल गौरी केर मान चारु बचाओल हे।



अर्थ :
उपरोक्त पदों में गौरी के माध्यम से कवि कोकिल विद्यापति कहते हैं कि हे शिव ! आज एक महान व्रत का मुहूर्त है और मुझे सुख का अनुभव हो रहा है। हे प्रभु आप नटराज का भेष धारण कर डमरू बजावें। गौरी के इस आग्रह को सुन शिव जी कहते हैं ...हे गौरी आप हमें नाचने के लिए कह रही हैं पर मैं कैसे नाचूं ? कारण, नृत्य से उत्पन्न संभावित चार खतरों से मैं चिंतित हूँ जिससे बचना मुश्किल है। पहला - नृत्य के क्रम में चाँद से अमृत की बूँदें टपकेंगी जिससे मेरा यह बाघम्बर सजीव अर्थात जीवित हो जायेगा और मेरे बसहा को खा जायेगा। दूसरा - नृत्य के क्रम में ही मेरे जटा जूट में लिपटे हुए सांप नीचे की तरफ खिसक कर आ जाएँगे और और पृथ्वी पर विचरण करने लगेंगे, जिसके फलस्वरूप कार्तिक के पाले हुए मयूर उन्हें मार डालेंगे । तीसरा - जटा से निकलकर गंगा भी बाहर आ जाएँगी और सहस्त्र मुखी हो बहने लगेंगी, जिसे संभालना बहुत मुश्किल होगा । चौथा - मुंड का माला भी टूट कर बिखर जाएगा और वे सारे जीवित हो उठेंगे और आप यहाँ से भाग जाएँगी । यदि आप ही भाग जाएँगी तो फिर नृत्य का क्या प्रयोजन , कौन देखेगा ? इस गीत को गाकर विद्यापति कहते हैं औघर दानी शंकर पार्वती के मान की रक्षा करते हुए नृत्य भी करते हैं और संभावित खतरा से भी बचा लिया


 
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